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व्यंग्य

प्रभु जी चले तीर्थ पर

अर्चना चतुर्वेदी


नारायण ...नारायण नारद जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में विष्णुपुरी में प्रवेश किया। विष्णु भगवान आराम फरमा रहे थे और लक्ष्मी जी एज यूजुअल उनकी चरण सेवा कर रही थीं। नारद जी ने उन्हें प्रणाम किया, प्रभु बोले, 'पधारिए मुनिवर बड़े दिन बाद आए।' नारद जी बोले, 'क्या करें प्रभु आज कल हर जगह ट्रेफिक जाम रहता है, इसलिए भ्रमण में भी समय ज्यादा लगता है। लोन आसानी से मिल जाता है, सो हर छोटे बड़े देवी देवता ने भी अपना वाहन ले लिया है। अब तो स्वर्ग में भी पार्किंग की जगह नहीं मिलती।' नारद जी ने एक ही साँस में अपनी सारी परेशानियाँ बयान कर डाली, फिर थोड़ा रुककर बोले 'पर प्रभु आज तो में आपसे किसी खास मुद्दे पर बात करने आया हूँ।'

'अरे बोलिए मुनिवर' प्रभु बोले।

'प्रभु हमें आपसे शिकायत है' नारद जी शिकायती लहजे में बोले।

'अरे मुनिवर क्या हुआ खुलकर बोलिए हम आपकी शिकायत दूर कर देंगे' प्रभु ने मुस्कुराते हुए कहा।

'प्रभु आपने कितने वर्षों से भारत भ्रमण नहीं किया है, भारत भूमि पर आपके कितने ही तीर्थ स्थल हैं। कितने तो आपके अलग अलग अवतार में जन्मस्थान भी हैं। सारे पृथ्वीवासी इतना पैसा खर्च करके तीर्थयात्रा करते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि वहाँ आपका वास है। पर आप तो वर्षों से वहाँ गए ही नहीं। आपके भक्त आपके दर्शन के लिए कितने कष्ट उठाते हैं जरा चलकर देखिए तो सही' नारद जी ने अपनी परेशानी बताई।

'क्या हुआ मुनिवर? आप विस्तार से बताइए।' प्रभु ने कहा।

'नहीं हम कुछ नहीं बताएँगे आपको स्वयं चलना होगा' नारद जी बालक की तरह ठुनकते हुए बोले।

'हम अपनी दिव्य दृष्टि से यहीं से भ्रमण कर लेते हैं', प्रभु बोले।

तभी लक्ष्मी जी बोली 'प्रभु आप बहुत आलसी हो गए हैं, कहीं जाना ही नहीं चाहते, देखिए तो तोंद भी निकल आई है बैठे बैठे, जब मुनिवर इतना अनुनय कर रहे हैं तो चले जाइए न। आपका तो कहीं जाने का मन ही नहीं करता, कितने समय से तो हमें भी कहीं घुमाने नहीं ले गए।

विष्णु जी हँस कर बोले 'देवी नाराज क्यों होती हो, चलिए आप भी साथ ही चलिए'। फिर नारद जी से बोले 'कहिए मुनिवर कहाँ चलना है?

'प्रभु हम भारत भ्रमण करेंगे पर पहले हम बृज से शुरू करेंगे जहाँ आपने कृष्ण अवतार लिया'। नारद जी ने कार्यक्रम बताया

लक्ष्मी जी तुनककर बोली 'नहीं हमें नहीं चलना है, भारत भूमि महिलाओं के लिए सेफ नहीं है और हम तो लक्ष्मी हैं बिना जेवर के नहीं जा सकते और वहाँ तो कोई महिला चेन भी नहीं पहन सकती वो भी लूट लेते हैं, ना बाबा ना आप ही जाइए।'

'अरे बाप रे आपको इतनी सारी जानकारी किसने दी भारत भूमि के बारे में' भगवन बोले।

'हमें हमारी सहेलियों ने बताया।' वो अक्सर भ्रमण के लिए पृथ्वी लोक पर जाती रहती हैं। लक्ष्मी जी पूरा आत्मविश्वास प्रकट करते हुए बोलीं।

तभी नारद जी हाथ जोड़कर बोले, 'माते आप कह तो ठीक रही हैं, पर हम मथुरा, वृंदावन चल रहे हैं, जहाँ प्रभु ने कृष्ण अवतार लिया था और तभी प्रभु ने वहाँ की महिलाओं को आत्मरक्षा के गुर भी सिखा दिए थे।

वहाँ की महिलाएँ ऐसे लट्ठ चलाती हैं कि पुरुष भी डरते हैं और हम दोनों भी तो हैं आपके साथ फिर डरना कैसा?

'प्रभु आप दोनों साधारण मनुष्य का भेष धारण कर लीजिए और अपनी आँखों पर ऐनक जरूर लगा लीजिएगा' नारद जी ने भगवान से कहा।

भगवान और लक्ष्मी जी तैयार हो गए और बोले 'मुनिवर हम अपनी यात्रा प्रारंभ कहाँ से करेंगे?

'प्रभु हम सर्वप्रथम मथुरा चलेंगे और वहाँ हम स्टेशन से प्रवेश करेंगे जिससे यात्रियों की सही स्थति आपको समझ आए।' नारद जी ने खुद को बुजुर्ग में परिवर्तित किया और पलक झपकते ही तीनों स्टेशन की भीड़ भाड़ में घुस गए। धक्का-मुक्की करते हुए जैसे ही तीनों बाहर आए उन्हें ऑटो और रिक्शे वालों ने घेर लिया। जहाँ लोग सही सही पैसे तय करने के लिए बहस कर रहे थे। वहाँ रिक्शे वाले बाहरी यात्रियों को दूनादून पैसे माँग कर परेशान कर रहे थे।

लक्ष्मी जी परेशान हो उठी और वोली 'प्रभु यहाँ तो कितनी गंदगी है और रिक्शेवाले भी सबको परेशान कर रहे हैं यहाँ की सरकार कुछ नहीं करती।' प्रभु बेचारे खुद परेशान थे क्या जवाब देते और नारद जी दोनों को देखकर मन ही मन मुस्करा रहे थे। फिर धीरे से बोले, 'देवी हम यहाँ से अदृश्य होकर सीधे होली गेट पहुँचते हैं। वहीं से आगे की यात्रा पैदल करेंगे और द्वारिकाधीश मंदिर चलेंगे।

अब तीनों होलीगेट पर पहुँचे तो वहाँ का नजारा देखकर परेशान हो गए नाला रुका था, सीवर का गंदा पानी,टखने तक बह रहा था, जगह जगह कूडे के ढेर लगे थे।

'हे प्रभु हम नर्क में तो नहीं आ गए गलती से,' लक्ष्मी जी बोलीं।

'अरे नहीं देवी', यहाँ तो ये नजारा अक्सर होता है, 'सफाई कर्मचारी हड़ताल पर होंगे' नारद जी ने जानकारी दी ।

अब ये हड़ताल बेचारे प्रभु की समझ से बाहर थी। क्योंकि देवलोक में कोई देवता हड़ताल नहीं करता, ये सब सुविधाएँ सिर्फ हमारे पृथ्वीलोक पर इसी देश में ही उपलब्ध हैं, पर भगवान एकदम शांत थे और लक्ष्मी जी अपनी साड़ी ऊपर उठा कर उचक-उचक कर चलने का प्रयास करने लगीं।

जैसे तैसे वो लोग कुछ आगे बढ़े थे कि शोर सुनाई दिया 'हट जइयो, हट जइयो तीनों भीड़ की रेलमपेल में एक दुकान पर चढ़ गए। बाद में देखा तो पता लगा कि एक साँड़ भागा भागा आ रहा है और उसके पीछे पीछे लोग दौड़ रहे थे। इस नजारे को देख कर बेचारी लक्ष्मी जी घबरा गई थी। बाजार में गंदगी भी बहुत थी सो वो प्रभु के साथ रिक्शे पर सवार हो आगे चलीं। दूसरे रिक्शे में नारद जी सवार हो गए। पूरा बाजार और रास्ता गंदगी का ढेर लग रहा था। लोग भगवान का नाम लेते हुए नाक ढँक कर चल रहे थे। लक्ष्मी जी भी बदबू से परेशान थी, कुछ ही देर में वो लोग विश्राम घाट पहुँचे, जहाँ उन्हें यमुना जी के दर्शन करने थे, पर ये क्या? उन्हें बहुत सारे लोगों ने घेर लिया। वो लोग उनसे पूजा करने की और शहर घुमाने की, दान पुन्य की बात कर रहे थे।

नारद जी ने बताया कि 'ये यहाँ के पंडा लोग हैं। ये पंडे पुरोहित हर तीर्थस्थान पर मिल जाएँगे।' अभी वो लोग उस भीड़ से पीछा छुड़ाने का प्रयास कर ही रहे थे कि कुछ लोग चिल्लाए, चश्मा उतार लो बंदर ले जाएँगे। जैसे तैसे सीढ़ियाँ उतर कर यमुना जी की पूजा करने पहुँचे पर यमुना का हाल देखकर भगवान की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। इतनी गंदगी, इतनी बदबू, प्लास्टिक की थैलियाँ, कूड़ा-करकट देखकर तीनों उदास हो उठे थे। अभी इस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि तभी किसी का प्रसाद का डिब्बा बंदर ले उड़े और मिठाई की छीना-झपटी में सारे बंदर आपस में लड़ने लगे, शांत माहौल मिनटों में बदल गया। वहाँ से अपनी जान बचा कर तीनों द्वारिकाधीश मंदिर पहुँचे, जो वहाँ से निकट ही था। मंदिर के पास दूसरे पंडे इंतजार कर रहे थे, उनसे जान छुड़ा कर जैसे तैसे तीनों मंदिर में पहुँचे। मंदिर साफ सुथरा था, राजाधिराज को खूब सजाया गया था। तीनों खुश थे प्रभु का श्रृंगार देख कर, उन्हें लगा कम से कम यहाँ तो प्रभु की सेवा हो रही है। पर वहाँ प्रसाद पाने के लिए प्रभु को भी रुपये देने पड़े। दर्शन करके जैसे ही नीचे आए और अपनी चप्पल खोजी तो पता लगा उन्हें कोई उड़ा ले जा चुका था और मंदिर के नीचे बाजार में इतनी गंदगी थी कि पैर भी रखने की हिम्मत नहीं थी।

अब तो लक्ष्मी जी बहुत ही दुखी हो गईं और बोली 'प्रभु मथुरा को तो तीन लोक से न्यारी कहा जाता है पर मथुरा की ऐसी दशा देखकर तो हमारा मन बहुत दुखी हो चुका है। लोगों की आपमें श्रद्धा तो देखिए इतनी परेशानियों के वावजूद यहाँ आपके दर्शन को आते हैं।'

प्रभु कुछ नहीं बोल पा रहे थे। चुपचाप आकर एक रिक्शे में बैठ गए और जन्म भूमि की और चल पड़े। लक्ष्मी जी और नारद जी भी चल पड़े पर जन्म भूमि के हालात तो और भी बदतर थी। जगह जगह भीड़, गंदगी, मांस की दुकान और तो और प्रभु तो मानो आज भी जेल में बंद थे उनके दर्शन की टिकट लग रही थी। ऐसा लगा मानो बेचारे भगवान भी परेशान होकर अपने भगवान को याद कर रहे थे। जन्म भूमि के दर्शन करके नारद जी ने प्रभु से कहा, 'प्रभु अब आप कही आराम करेंगे या हम वृंदावन चलें?

प्रभु कुछ बोलते उससे पहले लक्ष्मी जी बोली, 'प्रभु पहले हमें अपने लिए चरण पादुका लेनी होंगी। हम थक भी गए हैं, पर यहाँ हमें आराम के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई दे रहा, हर जगह भीड़ ही भीड़ है।

नारद जी बोले, 'देवी हम ऑटो लेकर या माया से वृंदावन चलते हैं, वहीं निधिवन में आराम भी कर लेंगे।' तीनों वृंदावन के लिए निकल पड़े। रास्ता साफ-सुथरा था, सड़कें भी अच्छी थी लेकिन जैसे ही वृंदावन पहुँचे वही भीड़-भाड़ और गंदगी। रास्ते में आश्रम पड़ा, जहाँ अनेक बीमार विधवाएँ बहुत बुरे हालात में थी।

उन्हें देखकर लक्ष्मी जी उदास हो गईं और बहुत से प्रश्न एक साथ कर डाले, 'ये सब इतनी वृद्ध और क्षीणकाय हैं, कैसे अपने काम काज करती होंगी? कौन इनका ध्यान रखता होगा? ये यहाँ क्यों रह रही हैं?

नारद जी बोले, 'देवी इन्हें इनके परिवार ने यहाँ भेजा है ईश्वर की खोज में, ये सभी विधवा हैं, और भजन पूजन करके अपना पेट पालती हैं।

हे भगवान कितना गलत तरीका है, क्या घर बैठ कर प्रभु का ध्यान नहीं हो सकता? लक्ष्मी जी मन व्यथित हो गया था।

वो अब प्रभु की और मुखातिब हुई, 'प्रभु आपसे एक विनती है, आप इनका उद्धार जरूर करिएगा,' पर ये क्या प्रभु की आँखों में आँसू, प्रभु का ह्रदय भी द्रवित हो चुका था।

अब वो तीनों बिना कुछ कहे चल पड़े बाँके बिहारी और तभी नारद जी का चश्मा बंदर उतार कर ले गया और वो परेशान इधर-उधर देख रहे थे। उन्हें इस हाल में देखकर लक्ष्मी जी हँस पड़ी, तभी कुछ लोग चिल्लाए अरे! बंदर को पप्पू छाप बिस्कुट खिलाओ, चश्मा छोड़ देगा। फिर चला पप्पू छाप बिस्कुट का दौर जो दो रुपये का था और बंदर महाराज १० रुपये डकार चुके, तब कहीं जाकर चश्मा फेंका, पर तब तक चश्मे को तोड़ मरोड़कर मोर बना दिया था।

बाद में वहाँ लोगों से पता चला कि बंदर रोज किसी का चश्मा उड़ा लेते हैं और अपना पेट भर लेते हैं। कुछ लोगों का बिजनेस चल पड़ा है, कुछ तो इस लाइन के एक्सपर्ट हो गए हैं यानि पप्पू छाप खिलाकर चश्मा छुड़ाने में यानी बंदर भी खुश और मनुष्य भी। लक्ष्मी जी और प्रभु इस नजारे को देख खुश थे। अब वो लोग बाँके बिहारी की तरफ चले पर उस गली में इतनी भीड़ थी की वो लोग धक्कामुक्की करते हुए भीड़ के रेले के साथ ही मंदिर पहुँच गए पर मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई मंदिर के अंदर पहुँच दर्शन करना इससे बड़ी चुनौती थी पर तीनों ने हिम्मत दिखाई और अंदर पहुँच गए पर अंदर जाकर भी मानसिक दर्शन से ही काम चलाना पड़ा।

अब प्रभु के इशारे पर तीनों अपनी माया यानि प्रभु शक्ति से सीधे निधिवन के पास पहुँचे और निधिवन में प्रवेश किया। वहाँ की शांति और भक्तिमय वातावरण में पहुँच कर प्रभु और देवी बहुत प्रसन्न हुए और वही बगीचे में आराम फरमाने लगे। जहाँ पूरे शहर की भाग दौड़ में किसी भक्त ने प्रभु की तरफ देखा तक नहीं वहाँ इस समय बंदर और पक्षी प्रभु को देखकर झूम रहे थे। तभी नारद जी ने प्रभु से पूछा 'प्रभु मथुरा वृंदावन कैसा लगा? क्या आप अब गोवर्धन और बरसाने भी चलेंगे?' प्रभु बोले, 'मुनिवर तुमने बृज में लाकर हमारी आँखें खोल दीं, पर हमारा हृदय बहुत दुखी है, इस विश्व प्रसिद्ध तीर्थ का ये हाल देख कर। वाकई आज के भक्तों की तपस्या हमारे उन भक्तों से कठिन है, जो बैठ कर वर्षों तप में लीन रहते थे।

मुनिवर अब हम वापिस विष्णुपुरी चलेंगे पर बहुत जल्द फिर आएँगे। एक बात और शहर की हालात सुधरना तो यहाँ की सरकार का काम है, पर हम वादा करते हैं, जो हमारी भक्ति के लिए इतने कष्ट उठा रहे हैं। उन्हें हम मुक्ति जरूर देंगे और जो उन्हें इतना कष्ट सहने को मजबूर कर रहे हैं, अपना काम सही तरह नहीं कर रहे, उन्हें सजा जरूर देंगे और स्वर्ग में उनका प्रवेश वर्जित... नारद जी और लक्ष्मी जी मुस्कराते हुए विष्णुपुरी की और चल दिए।


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